इस वैश्विक संकट के बीच भी कुछ लोग 13 मार्च की सरकारी रिपोर्ट लाकर जमात की गैरजिम्मेदारी पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहे हैं, इससे बड़ा दुर्भाग्य भारत के लिए और क्या होगा! वो इस बात को मानते ही नहीं कि तबलीगी जमात ने किसी भी मानदंड का उल्लंघन नहीं किया है।
जबकि दिल्ली सरकार ने 13 मार्च को महामारी रोग अधिनियम के तहत 200 से अधिक लोगों के किसी भी सभा को प्रतिबंधित कर दिया था। इसके अलावा, उन्होंने किसी भी COVID 19 प्रभावित देश से आने वाले लोगों को आत्म-पृथक (isolate) करने के भी निर्देश दिए थे। निजामुद्दीन में तब्लीगी जमात के सदस्यों ने इन दोनों दिशा निर्देशों का उल्लंघन किया।
यह भी तर्क दिये गए कि जनता कर्फ्यू एक हफ्ते बाद 22 मार्च को लगाया गया था न कि जमात के जश्न के दौरान, जो पूरी तरह से अस्वीकार्य है। यहाँ सवाल सरकार के आदेशों के साथ नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी निभाने का है। दिल्ली सरकार ने 16 मार्च को ही 50 से अधिक लोगों की धार्मिक सभाओं को प्रतिबंधित कर दिया था क्योंकि तब तक पूरी दुनिया कोरोना वायरस की चपेट में आ चुकी थी। मगर जमात ने इस आतंक को भारत के हर राज्य में फैलाने में अपना पूरा योगदान दिया वो भी सिर्फ एक बार नहीं, बल्कि दो-दो बार।
काफी लोग अब इस सभा की तुलना दिल्ली में प्रवासी मज़दूरों के पलायन से कर रहे हैं। ये लोग इस बात को समझने में नाक़ाम हैं कि उन मज़दूरों को एक साथ इसलिए शहर छोड़ना पड़ा क्योंकि कोई अन्य विकल्प नहीं था। कोई भी अपने बच्चों के साथ सैकड़ों किलोमीटर चलने का निर्णय यूँ ही नहीं करता, उनके पास ना तो दूसरा रास्ता था और ना ही दो वक्त का खाना। लेकिन तब्लीगी जमात ने जो किया वह सरासर लापरवाही और मूर्खता है।
इस रूढ़िवादी संघ ने एक ऐसा काम किया है जिसके लिए अपराध शब्द भी शायद छोटा है। इनकी गैर जिम्मेदारी के चलते कई अन्य लोग कोरोनोवायरस संक्रमण के खतरे में पड़ गए। कोई नहीं जानता कि पिछले इतने दिनों में ये 3000 लोग कितने नए लोगों और ठिकानों के संपर्क में आए। अफसोस की बात है कि यह सब धर्म प्रचार के नाम पर किया गया।
आश्चर्य की बात तो ये भी है कि भारत का तथाकथित उदारवादी संघ जिनमें बड़े अभिनेता, पत्रकार और लेखक शामिल हैं, इस पर अभी भी चुप है। उन्होंने केवल सरकार और प्रशासन की खामियों का हवाला देकर जमात की इस बेहुदा हरक़त को सही ठहराने की कोशिश की है। यह पूरा उपद्रव इस्लाम के प्रचार के नाम पर हुआ तो उन्हें ये चिंता का विषय नहीं लगता है। अगर देश के किसी अन्य धार्मिक समूह द्वारा इस तरह की गैरजिम्मेदारी दिखाई जाती, तो वही उदारवादी इसका मजाक उड़ाते नहीं थकते।
जैसा कि हमने पहले भी देखा है सीएए के खिलाफ हुए विद्रोह में, बॉलीवुड की कई हस्तियों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। फिर चाहे वो दीपिका पादुकोण का जे एन यू जाना हो या स्वरा भास्कर और जीशान अय्यूब का शाहीन बाग़ जाकर समर्थन करना। व्यंग्य और तीखे कटाक्ष ट्वीट करने में निर्माता-निर्देशक अनुराग कश्यप भी पीछे नहीं रहते। लेकिन तब्लीगी जमात की इस शर्मनाक हरकत की निंदा करना तो दूर किसी ने इसपर अपना पक्ष भी नही रखा। क्या इस खामोशी का मतलब ये समझा जाए कि वो बॉलीवुड का उदारवादी संघ इस संकट की घड़ी में देश के नहीं बल्कि जमात के साथ खड़ा है!
इस वक़्त ये समझना बहुत ज़रूरी है कि किसी विशेष धार्मिक समुदाय से रूढ़िवादी समूह द्वारा किए गए गलत के खिलाफ बोलने का मतलब यह नहीं है कि आप उन्हें स्टीरियोटाइप कर रहे हैं। बेशक, भारत में अल्पसंख्यकों को हमेशा से भेदभाव और पक्षपात का सामना करना पड़ा है लेकिन, इसका ये मतलब बिल्कुल भी नहीं है कि रूढ़िवादी लोगों के समूह द्वारा किए गए अपराधों के खिलाफ नहीं बोलना चाहिए।
मानव सुरक्षा के इस घोर उल्लंघन के खिलाफ न बोल कर हमारे चहेते बॉलीवुड सितारों ने अपने खोखलेपन और असन्तुलित व्यवहार का परिचय दिया है। यह इस बात पर भी रोशनी डालता है कि वास्तव में भारत में उदारवाद जैसा कुछ है ही नहीं…. ये भी एक तरह की मन्द भक्ति ही है।